Sameer Anjaan Success Story; Aashiqui | Qayamat Se Qayamat | चॉल में रहे, काम मांगने पर संगीतकार ने किया बेइज्जत: समीर के गाने पर नुसरत फतेह रोए, सबसे ज्यादा सॉन्ग लिखने का वर्ल्ड रिकॉर्ड

2 दिन पहलेलेखक: आशीष तिवारी/भारती द्विवेदी

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आप चाहें मिलेनियल हों, जेनरेशन Z हों, जेनरेशन अल्फा या नई जेनरेशन बीटा हों…एक चीज जो इन सभी को एक-दूसरे से जोड़ती है, वो समीर अनजान के गाने हैं। तीन दशक से वो अपने गानों के जरिए प्यार, दोस्ती, हार्टब्रेक से लेकर पार्टी मोड तक हर मौके और हर फीलिंग के लिए अल्फाज लिख रहे हैं।

उनके सपने बहुत छोटे-छोटे थे, लेकिन कलम की जादूगरी ने उन्हें ऐसे मुकाम पर पहुंचा दिया, जहां से वो पीछे देखते हैं तो खुद पर यकीन नहीं होता। कभी शब्दों का ऐसा जाल बुना कि पाकिस्तानी गायक नुसरत फतेह अली खान भी गाते वक्त रो पड़े। एक लाइन के लिए उन्हें 150 टेक लेने पड़े थे।

समीर की चाहत कभी रेडियो पर अपना एक गाना सुनने की थी, लेकिन आज उनके नाम चार हजार से अधिक गाने लिखने का वर्ल्ड रिकॉर्ड है। कभी समीर गलियों में अपना गाना बजते सुनना चाहते थे, पिछले तीन दशक से उनके गाने न सिर्फ बज रहे हैं बल्कि अब उनके रीमिक्स भी बन रहे हैं। अपनी सफलता को वह भगवान की नेमत मानते हैं।

आज की सक्सेस स्टोरी में गीतकार समीर अनजान की कहानी…

पिताजी नहीं चाहते थे मैं गीतकार बनूं

मैं बनारस से हूं, लेकिन मेरी परवरिश बनारस शहर में नहीं हुई है। मैं बनारस के एक गांव ओदार में पला-बढ़ा हूं। वो गांव तो अब सपनों में ही दिखता है, हकीकत में कुछ वैसा नहीं है। अब गांव जाता हूं तो रोना आता है। गांव की वो चौपाल, कच्चे मकान, महुआ-नीम के पेड़, लोग, संकरी गलियां वो सब नेस्तनाबूद हो गए। गांव का बुरी तरह से शहरीकरण हो गया है।

अब मैं सिर्फ इसलिए जाता हूं क्योंकि वो मेरी मातृभूमि है और वहां से मेरी यादें जुड़ी हैं, लेकिन गांव को देखकर बहुत दुख होता है। हम भाग्यशाली थे कि सही मायनों में गांव कहते किसको है, वो हमने जिया था। तालाब, पोखर, बगीचा, आती-पाती क्या होता है, आने वाली पीढ़ी को इन लफ्जों का मतलब भी पता नहीं होगा।

खैर, पिताजी की तमन्ना नहीं थी कि मैं कभी गीतकार बनूं। वो कहते थे कुछ भी करना, गीतकार बनने की कोशिश मत करना। इस वजह से उन्होंने मुझे लिटरेचर नहीं पढ़ने दिया और मुझे BHU से MCom कराया। वो मेरे गाने लिखने के बिल्कुल खिलाफ थे।

हालांकि, मेरे लिखने का शौक अपने चरम पर था। मैं सातवीं क्लास में था, जब मुझे लिखने का शौक जगा। उसी उम्र से मैंने नोट बनाने शुरू कर दिए थे। फिर दोस्तों का एक ग्रुप बन गया, जो शायरी करते थे। फिर हम दोस्तों ने एक छोटा सा रूम लेकर उसमें गोष्ठी शुरू की।

यहां से बात ऑर्केस्ट्रा पार्टी तक पहुंची। फिर हमने एक ऑर्केस्ट्रा पार्टी शुरू कर दी, जिसका नाम मनोरंजन ऑर्केस्ट्रा पार्टी था। इसकी एंकरिंग मैं करता था और शेरो-शायरी सुनता-सुनाता था।

गीतकार बनने के लिए दो दिन के अंदर बैंक की नौकरी छोड़ी

उन दिनों बनारस में गुप्ता संगीतालय के नाम से एक मशहूर संगीतालय था। वहां, जाकर मैंने बैंजो बजाना सीख लिया। ऐसे में मुझे थोड़ी बहुत संगीत की भी जानकारी हो गई और मैं मुशायरों में जाने लगा। उत्तर प्रदेश का कोई भी ऐसा जिला नहीं होगा, जहां मैंने मुशायरा न किया हो। ये सब करते-करते मैं रेडियो तक पहुंच गया, लेकिन तब तक मेरे दिमाग में कभी नहीं आया कि मुझे गीतकार बनना है। मैं बस चीजों को एंजॉय कर रहा था।

मैं पढ़ाई के साथ ट्यूशन भी पढ़ाता था। मैं पत्रकारिता भी कर रहा था। इन सबके बीच मैंने सेंट्रल बैंक की नौकरी भी जॉइन कर ली और दो दिन के लिए काम पर भी गया। जब मैं दूसरे दिन अपनी कुर्सी पर बैठ रहा था, तब मेरे अंदर से आवाज आई कि ये तुम्हारी जगह नहीं है।

तुम गलत फैसला कर रहे हो। दिल की बात सुनो और यहां से निकलो। उस जमाने में बैंक की नौकरी मिलना, इंडियन सिविल सर्विस-पीसीएस से कम बड़ी बात नहीं होती थी। मैंने बैंक की नौकरी छोड़ दी।

गीतकार बनने का फैसला सुन घर वाले रोए

मेरा पूरा परिवार मेरे ऊपर निर्भर था। मेरे पिताजी मुंबई में स्ट्रगल कर रहे थे। दादाजी की नौकरी छूट गई थी। ऐसे में जब मेरी नौकरी लगी तो सबको लगा कि उन्हें एक सहारा मिल गया है। मैंने जब अपना फैसला घरवालों को सुनाया, तो सब रोने लगे।

मुझे कहा गया कि ऐसा मत करो। तुम देख रहे हो कि हम लोग ऐसे ही तकलीफ में हैं। पिता पहले से ही मुंबई में संघर्ष कर रहे हैं। ऐसे में तुम भी हमें छोड़कर चले जाओगे तो हमारा क्या होगा? लेकिन मेरी जिद थी और दिल मानने को तैयार नहीं था और मैं निकल गया।

मैं 6 अप्रैल 1980 को मुंबई आया था। वो तारीख मुझे आज भी याद है। जब मैं यहां आया तो भौचक्का रह गया कि ये मैं कहां आ गया। मैं मालवाणी के चॉल नंबर 628 और ब्लॉक चार में रहने लगा।

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चॉल में रहने के दौरान के संघर्षों को मैं शब्दों में बयां नहीं कर सकता। एक बार तो ऐसा हुआ कि मैं शौच के लिए गया था, तभी एक शराबी दरवाजा तोड़ अंदर घुस आया। उसने मुझे गंदी-गंदी गालियां दीं। मैं एक संभ्रात परिवार से आता था, मैं ऐसी सिचुएशन सोच भी नहीं सकता था। उस वक्त मेरी आंखों से आंसू बहने लगे। उस घटना को आज भी याद करके मेरी रूह कांप जाती है।

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पिताजी से मिला तो लगा रिश्तेदार से मिल रहा

मैं 23 साल की उम्र में मुंबई आ गया था। उस उम्र तक मैं अपने पिता से सिर्फ दो बार मिला था। वो मुंबई में थे, लेकिन मैं उन्हें बिना बताए आया और अकेले चॉल में रह रहा था। 23 साल की उम्र तक मैं बस दो बार अपने पिता से मिला था। मेरा पालन-पोषण दादाजी ने ही किया था। पिताजी मुंबई में जमने के लिए 17 साल तक संघर्ष करते रहे। जब पिताजी को पता चला कि मैं भी मुंबई में हूं तो उन्होंने मुझे मिलने बुलाया। ये तीसरी बार था, जब मैं उनसे मिलने वाला था।

मैं पिताजी से मिलने किसी उम्मीद में नहीं गया था कि वो मुझे अपने साथ रख लें। मैं गुस्से में था कि आज वो जो भी पूछेंगे, मैं उसका उल्टा जवाब दूंगा। पहले तो मुझे लगा ही नहीं कि वो मेरे पिता हैं। मुझे लगा कि मैं किसी रिश्तेदार से मिलने वाला हूं।

जब मैं उनसे मिला तो उन्होंने कहा कि तुम बड़े हो गए हो और अपने जीवन का फैसला करने का तुम्हें अधिकार है, लेकिन पिता होने के नाते में तुमसे कुछ पूछना चाहता हूं। फिर उन्होंने मुझसे पहला सवाल किया कि क्या तुमने कभी किसी लड़की से मोहब्बत की? उनका सवाल सुनकर मैं हैरान रह गया। मैंने हां में जवाब दिया। फिर उन्होंने मुझसे कहा कि क्या सोचकर प्यार किया? मैंने उनसे कहा कि प्यार कोई सोचकर नहीं करता है। जब करना होता है तो कर लेता है।

उन्होंने कहा- अब पूछो, यह सवाल मैंने तुमसे क्यों किया? मैंने कहा- बताइए। तब उन्होंने कहा कि मैं जानना चाहता हूं कि तुम बावफा आशिक हो या बेवफा आशिक हो। क्योंकि यह इंडस्ट्री महबूबा की तरह है। अगर इससे सच्ची मोहब्बत हो तभी रहना, वरना भाग जाना।

पिता ने कहा- जन्नत जाने के लिए मरना पड़ेगा

उन्होंने दूसरा सवाल पूछा कि तुम यहां क्या सोचकर आए हो। इंडस्ट्री जन्नत की तरह है। यहां सब हूरें मिलेंगी, पैसा मिलेगा, शोहरत मिलेगी। मैंने कहा- हां फिर, उन्होंने कहा- जन्नत में कुछ पाने के लिए आदमी को मरना पड़ता है। क्या तुम मरने के लिए तैयार हो?

मुझे लगा पापा ने बात तो बहुत बड़ी कर दी, लेकिन मैं उन्हें दो टूक जवाब देने के मूड से आया था। मैंने इस सवाल पर भी फट से हां कह दिया। फिर पापा ने मुझसे कहा कि चलो अपना बोरिया-बिस्तर उठाओ और घर चलो, लेकिन अगले छह महीने तुम कुछ भी नहीं लिखोगे। अब मैं बताऊंगा कि इस इंडस्ट्री की रवायत और भाषा क्या है।

समीर बहुत छोटे थे, जब उनके पिता अनजान गीतकार बनने के लिए मुंबई आ गए थे।

मैं तुम्हें हर म्यूजिक डायरेक्टर के साथ होने वाली मीटिंग में ले जाऊंगा, लेकिन मैं कहीं तुम्हारा परिचय नहीं कराऊंगा। तुम वहां बैठना और चीजों को समझने की कोशिश करना। गाना लिखने के लिए जो सिचुएशन मुझे दी जाएगी, उस पर मैं भी लिखूंगा और तुम भी लिखोगे। मैं हम दोनों का लिखा मुखड़ा आगे सुनाऊंगा, जिस दिन तुम्हारा लिखा पास हो जाएगा, मैं तुम्हें आजाद छोड़ दूंगा। उसके बाद तुम जा सकते हो।

लक्ष्मीकांत जी से गाना पास करवाने में चार साल लगे

एक साल बाद मेरा एक गाना आया। फिल्म का नाम ‘बिंदिया चमकेगी’ था और उसमें रेखा जी थीं। यहां से मेरे जीवन में संघर्ष की शुरुआत हुई। मैं सुबह निकलता और रात में थका-हारा घर पहुंचता था। पिताजी मेरा संघर्ष देख रहे थे। मुझसे पूछते थे कि कहां-कहां गए, क्या लिखा। मेरा संघर्ष देखकर उन्होंने जीवन में एक बार ही मेरे लिए लक्ष्मीकांत जी बात की।

तब उन्होंने पिताजी से कहा कि आज तो आपने कह दिया, दोबारा किसी से ये बात मत कहिएगा। एक बात याद रखिएगा कि बाप की दुकान बाप की होती है। आपने कहा है तो मैं बस इतना कर सकता हूं कि मैं इसे सुनूंगा। ये जब भी मेरे पास आएगा, मैं इसका लिखा पढूंगा। जिस दिन ये मेरे मन मुताबिक अपना मुखड़ा लिखेगा, उस दिन मैं आपको कॉल करूंगा कि आइए, अब आपके बेटे का गाना रिकॉर्ड कर रहा हूं।

मुझे लक्ष्मीकांत जी से एक गाना पास कराने में चार साल लग गए। मैं हर दूसरे दिन उनके पास जाता और अपना लिखा सुनाता। वो मुझे हर बार कहते कि अभी वो बात नहीं है। चार साल बाद एक दिन ऐसा आया कि मैंने उन्हें अपना लिखा सुनाया और वो उन्हें पसंद आ गया। फिर उन्होंने वो गाना बनाया और पिताजी को कॉल कर कहा कि आइए आपके बेटे का गाना रिकॉर्ड करने वाला हूं। वो गाना गोविंदा की फिल्म ‘लव 86’ का था। इस तरह लक्ष्मीकांत प्यारेलाल के यहां मेरी एंट्री हुई।

पिताजी के दोस्त ने बेइज्जत करते हुए मेरी डायरी फेंकी

एक म्यूजिक डायरेक्टर थे, जो मेरे पिताजी के एक अच्छे-खासे दोस्त थे। मैं उनके पास जब ऐसे जाता था तो बहुत इज्जत से मिलते थे। चाय पिलाते और हालचाल लेते। उस दिन उन्होंने सामने से बोला कि मैंने सुना है कि तुम कुछ लिखते हो। कभी सुनाया नहीं तो कुछ सुनाओ। मैंने उन्हें एक घंटे तक अपनी कविता सुनाई और वो गौर से सुनते रहे। अचानक वो इतना खफा हुए कि मेरी डायरी तीसरी मंजिल से नीचे फेंक दी।

फिर बहुत गुस्से में आकर बोले कि क्यों अपने पिताजी का नाम खराब कर रहे हो? इतने बड़े पिता का नाम तुम्हारी वजह से खराब हो जाएगा। मैं एक काम करता हूं, मैं तुम्हें टिकट के पैसे देता हूं। तुम अपने पिता को बताना भी मत और इस शहर से चले जाओ। तुम बैंक में नौकरी कर रहे थे, यहां आने की जरूरत क्या थी?

मैं उन्हें कुछ बोल भी नहीं सकता था। मैं कांपते पैरों से चुपचाप उठा, अपनी डायरी उठाई और उसे माथे से लगाया। मैंने 222 नंबर की बस पकड़ी और सीधे उषा खन्ना जी के पास चला गया। ऐसे तो वो अक्सर लोगों से घिरी रहती थीं। सौभाग्य से उस दिन वो अकेली थीं।

मैंने उनसे कहा कि आंटी मैंने कुछ गाने लिखे हैं, आपको सुनाऊं? उन्होंने हामी भर दी। मैंने सिर्फ पांच मुखड़े सुनाए और उषा जी ने कहा कि अब बस कर। ये पांचों गाने मुझे दे दे। मैं अगले हफ्ते इन्हें रिकॉर्ड करूंगी। जगह कौन सी होगी, वो मैं तुम्हें कॉल करके बताऊंगी। फिल्म ‘बेखबर’ के लिए मेरा गाना रिकॉर्ड हुआ। इस तरह हिंदी इंडस्ट्री में मेरी शुरुआत हुई। उससे पहले तक मैं रीजनल फिल्मों के लिए लिख रहा था।

किस्मत ने आनंद-मिलिंद से मिलवाया

मैं जिस दिन उषा जी से मिला, उस दिन किस्मत मेरे साथ थी। जब मैं उषा जी के पास से निकला, तभी मुझे मुरली नाम का एक सिंगर मिला। उसने मुझसे कहा कि आप भोजपुरी लिखते हो, चलो आपको चित्रगुप्त जी से मिलवाता हूं। चित्रगुप्त जी भोजपुरी इंडस्ट्री का बड़ा नाम थे। मैं भी उनके पास जाने के लिए तैयार हो गया। मेरे पिताजी ने उनकी फिल्म ‘बलम परदेसिया’ लिखी थी।

उनका पूरा परिवार मुझसे बड़े प्यार से मिला। चित्रगुप्त जी ने मुझसे कहा कि देखो बेटा, मैं तो भोजपुरी फिल्में बनाता हूं तो यहां तो मैं तुम्हें मौका दूंगा, लेकिन मेरे दो बेटे हैं आनंद-मिलिंद। वो भी तुम्हारी तरह युवा हैं और संघर्ष कर रहे हैं। तुम सब साथ बैठो और कुछ अच्छा बनाओ। फिर उन्होंने आनंद-मिलिंद को बुलाया और मुझसे मिलवाया। हम सबने साथ में काम शुरू कर दिया।

उसी समय फिल्म प्रोड्यूसर नासिर हुसैन के बेटे मंसूर खान डायरेक्शन में कदम रखना चाहते थे। नासिर ने बेटे से कहा था कि कोई छोटी फिल्म बनाकर खुद को प्रूव करो, तब मैं तुम्हें बड़ी पिक्चर दूंगा। मंसूर ने वीडियो फिल्म ‘अम्बर्टो’ बनाई, जिसमें आमिर खान थे। उस वीडियो फिल्म में मैं आमिर खान, आनंद-मिलिंद सबने साथ में काम किया। मैंने उस फिल्म के लिए गाना भी लिखा। नासिर साहब और मंसूर सबको मेरा लिखा पसंद आया था।

‘कयामत से कयामत तक’ हाथ से गई, फिर लगा सारे दरवाजे बंद हो गए

मंसूर ने कहा कि चलो अब कहानी पर काम करते हैं। ऐसे में ‘कयामत से कयामत तक’ की शुरुआत हुई। जब म्यूजिक डायरेक्टर और राइटर की बात आई, तब नासिर जी ने कहा कि हमारे यहां तो आरडी बर्मन और मजरूह सुल्तानपुरी ही काम करते हैं।

मंसूर ने कहा कि उसे आनंद-मिलिंद के साथ ही काम करना है। बेटे की जिद पर नासिर जी का जवाब आया कि फिल्म में हीरो-हीरोइन, म्यूजिक डायरेक्टर और राइटर सब नए हैं। ऐसे में प्रपोजल कैसे बनेगा। फिर तय हुआ कि म्यूजिक डायरेक्टर और राइटर दोनों की पसंद का होगा। म्यूजिक के लिए मंसूर ने आनंद-मिलिंद को चुना और राइटर में मजरूह सुल्तानपुरी आ गए। मेरा पत्ता कट गया। फिल्म आई और गजब की हिट रही।

मैं बहुत निराश हो गया कि एक दरवाजा खुला था, वो भी बंद हो गया। मैंने आनंद से अपनी दुविधा बताई तो उसने कहा कि वो आगे जो भी फिल्म करेंगे, उसमें मेरे लिए जगह बनाएंगे। कुछ दिन बाद ही ‘दिल’ के लिए आमिर ने आनंद-मिलिंद को बुलाया। आनंद-मिलिंद वहां मुझे अपने साथ लेकर गए।

आनंद-मिलिंद को जब म्यूजिक का ऑफर मिला तो उनसे राइटर का नाम पूछा गया तो उन दोनों ने मेरा नाम लिया। इन्होंने कहा कि एक बार मेरा गाना सुना जाए। फिर मैंने उन्हें ‘खंबे जैसी खड़ी है’ सुनाया। ये गाना सभी को बहुत पसंद आया। ‘दिल’ फिल्म में मेरी एंट्री हो गई और वो फिल्म जब रिलीज हुई तो मेरी किस्मत ही बदल गई।

तीन साल के अंदर फिल्मफेयर अवॉर्ड जीत लिया

‘दिल’ के बाद मैंने ‘आशिकी’ के गाने लिखे। इस फिल्म के गानों ने कई नए रिकॉर्ड बनाए। इस फिल्म के गाने ‘नजर के सामने’ के लिए साल 1991 में मुझे अपना पहला फिल्मफेयर अवॉर्ड मिला। फिर साल 1993 में ‘दीवाना’ फिल्म के गाने ‘तेरी उम्मीद, तेरा इंतजार’ और साल 1994 में ‘हम है राही प्यार के’ के गाने ‘घूंघट की आड़’ के लिए भी मैंने फिल्मफेयर अवॉर्ड जीता।

इंडस्ट्री में मेरे पिताजी ने लंबे समय तक काम किया और वो बहुत डिजर्विंग थे, लेकिन उसके बाद भी उन्हें कभी अवॉर्ड नहीं मिला। जब मुझे मेरे पहला फिल्मफेयर मिला था, तब मेरे पिताजी वहां मौजूद थे। वो पैरालिसिस का चौथा अटैक झेल रहे थे और चल भी नहीं पा रहे थे, लेकिन मेरे सम्मान के लिए वो मंच तक आए। उन्होंने स्टेज से कहा था- ‘जो मैं नहीं पा सका, वो मेरे बेटे ने हासिल किया। मैं चाहता हूं कि भविष्य में इसे और भी उपलब्धियां मिलें।’

‘आशिकी’ के लिए महेश भट्ट ने डायरेक्शन दांव पर लगाया

‘आशिकी’ पहले चाहत के नाम से सिर्फ एक गानों का एल्बम बन रहा था। गुलशन कुमार उसे फिल्म बनाना चाहते थे, लेकिन हीरो-हीरोइन की वजह से उन्होंने वो आइडिया ड्रॉप कर दिया था। डिस्ट्रीब्यूटर्स ने कहा था कि हीरो-हीरोइन अच्छे नहीं हैं।

मेरी फिल्म ‘दिल’ हिट हो चुकी थी, लेकिन नदीम-श्रवण बहुत ज्यादा संघर्ष कर रहे थे। मुझे पता था कि टी-सीरीज बैनर अपनी फिल्मों का बेस्ट प्रमोशन करता है। मैंने ‘आशिकी’ के गाने में अपनी जवानी की पूरी सोच लगा दी थी। दिमाग में कहीं न कहीं था कि अगर ये फिल्म चल गई तो पूरी जिंदगी बदल जाएगी।

जब गुलशन जी ने कहा कि वो एल्बम बनाने वाले हैं तो हम सब निराश हो गए। मैं महेश भट्ट के पास गया। उन्होंने जब सुना तो कहा ऐसे कैसे एल्बम बना देगा। गुलशन महेश भट्ट से बहुत ज्यादा डरते थे। महेश भट्ट ने घर में घुसते ही कहा कि सुना है कि गुलशन कुमार पागल हो गया है।

गुलशन जी को भी समझ आ गया कि कुछ तो गड़बड़ है। फिर महेश जी ने उनसे कहा कि मैंने सुना है कि तुम ‘आशिकी’ को फिल्म नहीं एल्बम बना रहे हो? उन्होंने महेश जी को बताया कि फिल्म को लेकर बहुत खराब रिस्पॉन्स आया है, इस वजह से वो ऐसा सोच रहे हैं।

फिर महेश जी ने कहा, गुलशन तू पागल हो गया है। मैं तुम्हें बता रहा हूं कि ये फिल्म तुम्हारे बैनर और इस सदी की सबसे बड़ी म्यूजिकल हिट होगी। महेश भट्ट ने पेपर मांगकर उस पर लिखा कि अगर ये फिल्म और इसका म्यूजिक नहीं चला तो वो डायरेक्शन छोड़ देंगे। फिर उसी पेपर पर नीचे गुलशन कुमार ने लिखा कि मैं इस फिल्म को ऐसे प्रमोट करूंगा कि आप हिंदुस्तान के वॉशरूम में भी जाएंगे तो वहां भी आशिकी दिखेगी।

फिर गुलशन ने कहा कि लेकिन एक समस्या और है। फिल्म के हीरो-हीरोइन दोनों बहुत खराब लग रहे हैं। महेश जी ने आइडिया दिया कि तुम चिंता मत करो, हम उनकी शक्ल पहले दिखाएंगे ही नहीं। उनके चेहरे पर कोट डाल देंगे। तुम म्यूजिक को प्रमोट करो, जब म्यूजिक हिट हो जाएगा, फिर चेहरे को रिवील करेंगे।

एक समय 110 फिल्मों के लिए एक साथ गाने लिख रहा था

मेरा बस इतना सपना था कि रेडियो सिलोन पर मेरा एक गाना बज जाए तो मैं लौटकर बनारस चला जाऊं, लेकिन आज चार हजार से अधिक गाने मेरे नाम हैं। इस वजह से ईश्वर पर मेरी आस्था अटूट है। मैंने अपनी पहली इनिंग में आनंद-मिलिंद और नदीम-श्रवण के साथ अच्छा काम किया।

ये वो समय था, जब मैं एक साथ 110 फिल्में कर रहा था। इनमें से आनंद-मिलिंद के साथ और नदीम-श्रवण के साथ 50 फिल्में थीं। मैं कामयाबी के पीक पर था, जब गुलशन की हत्या हुई। उसके बाद लगा जैसे मेरे लिए सब कुछ खत्म हो गया। मैं पहली बार अपनी लाइफ में टूटा था।

मैं संघर्ष में कभी नहीं टूटा था, लेकिन गुलशन जी के जाने से मैं टूट गया। मैंने खुद को संभाला और ऊपर वाले के प्रति आस्था बनाए रखी। मेरी दूसरी इनिंग की शुरुआत हुई। यश जौहर जी के बुलावे पर मैंने ‘कुछ-कुछ होता है’ के लिए लिखा।

इस फिल्म ने मेरे लिए एक नई दुनिया खोल दी। मैंने पहले इनिंग से ज्यादा अपनी दूसरी इनिंग में काम किया। अभी तक मैंने 136 म्यूजिक डायरेक्टर्स के साथ काम कर लिया है। सबने मुझे बहुत मोहब्बत दी।

मैं रिकॉर्ड के लिए नहीं, कई जिंदगियों के लिए काम कर रहा था

मैंने कभी सोचा नहीं था कि मेरी डेडिकेशन की वजह से गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड में मेरा नाम शामिल हो जाएगा। मैं तो बस अंधाधुंध अपना काम कर रहा था। मैंने कुछ पाने के लिए बहुत कुछ खोया। मैं अपनी बेटियों का बचपन नहीं देख पाया। हालांकि उस वक्त काम मेरे लिए ज्यादा जरूरी था क्योंकि मेरे ऊपर कई जिंदगियां निर्भर थीं। ये सारे लोग मेरी सफलता पर निर्भर थे।

पिताजी का निधन हो चुका था। गांव में जो मेरा परिवार था, वो मुझ पर ही निर्भर था। मेरे बड़े भाई कोई काम नहीं करते थे तो उनके बच्चों की लाइफ की जिम्मेदारी भी मेरी थी। रिश्तेदार और समाज की भी कुछ जिम्मेदारियां मेरे ऊपर थीं। इन सबके अलावा मेरा खुद का परिवार भी था।

ऐसे में उस वक्त मेरे पास काम करने के अलावा कोई विकल्प ही नहीं था। अपनी बेटियों के लिए मेरे जो जज्बात थे, उन्हें भी मैंने गानों में पिरोया है। ‘बाबुल’ और ‘धड़कन’ फिल्म के गाने ‘दूल्हे का सेहरा में’ वो दर्द दिखता है।

मैं सरस्वती चंद्र जैसी फिल्में बनाना चाहता हूं

मैं अभी ‘पुष्पा’ के म्यूजिक डायरेक्टर देवी श्री प्रसाद के साथ ‘सिर्फ तुम’ नाम की एक फिल्म कर रहा हूं। गणेश आचार्य की फिल्म है। पहली वाली भी ‘सिर्फ तुम’ मैंने ही की थी। वो मेरे साथ काम करने के लेकर काफी उत्साहित हैं और मेरे अंदर भी उतनी ही एक्साइटमेंट है। ये एक लव स्टोरी है और इसमें 10 गाने हैं।

लव स्टोरी तो मेरी खासियत है। मेरी कोशिश है कि इस फिल्म से मैं गानों को एक नया रूप दूं। मैं पूरी शिद्दत से अपना बेस्ट देने की कोशिश कर रहा हूं। मैं अब गानों के अलावा फिल्में लिखना चाहता हूं। मैं ‘सरस्वती चंद्र’, ‘प्यासा’, ‘संगम’ जैसी फिल्में लिखना चाहता हूं।

मैं खुद को चैलेंज देना चाहता हूं। मैं जब भी खुद को चैलेंज करता हूं, मेरी एनर्जी दोगुनी हो जाती है। मुझे जीवन में ईश्वर ने सब कुछ दिया है इसलिए किसी चीज का पछतावा नहीं है। बस मन का काम करना चाहता हूं।

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